रामाधीर सिंह, जो इस फिल्म के पहले भाग की तुलना में अब अधिक बुजुर्गवार है, लेकिन इसके बावजूद अभी तक विधायक ही है, को खुश होना चाहिए कि अपने तमाम किए-धरे के बावजूद वह अभी तक जिंदा है। जब वह जवान था, तब उसने अपने मुख्य पहलवान शाहिद खान को मरवा दिया था। फिर उसने शाहिद के बेटे खूंखार सरदार खान (मनोज बाजपेयी) को भी मरवा दिया। बाद में उसने सरदार के बड़े बेटे का खात्मा करवा दिया। 'आपको क्या लगता है मैं अभी तक क्यों जिंदा हूं?', वह अपने कारिंदों से पूछता है। वे सिर हिला देते हैं। वह जवाब देता है : 'क्योंकि मैं फिल्में नहीं देखता!' इस इलाके के हर बाशिंदे के दिमाग में हर वक्त कोई पिक्चर चलती रहती है, वह कहता है। यथार्थ के थपेड़ों से परेशान नौजवान सलमान खान, संजय दत्त जैसे गुस्सैल नायकों का अनुसरण करते हैं। दही की तरह ठंडे दिमाग वाला रामाधीर सिंह (फिल्मकार तिग्मांशु धुलिया इस भूमिका के कारण अभिनय जगत की एक विराट खोज बन गए हैं) के हाथ में कथानक के सूत्र बरकरार रहते हैं। वास्तव में उसका काम और आसान हो जाता है। यह फिल्म धनबाद के छोटे-से कस्बे पर लोकप्रिय मनोरंजन की पकड़ का ब्योरेवार जायजा लेती है। फिल्म के पहले दृश्य में हमें 'मैंने प्यार किया' का एक पोस्टर दिखाई देता है, जिसका मतलब है कि यह वर्ष 1989 है। लेकिन चूंकि उस वक्त देश के दूरदराज के देहाती इलाकों में फिल्में बहुत देरी से पहुंच पाती थीं, इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि यह 90 के दशक की शुरुआत होगी। यही वह दशक है, जब देश संचार क्रांति का साक्षी हुआ। हमने अपने को लैंडलाइन फोन से पेजर और फिर सेलफोन तक का सफर तय करते देखा और बड़ी छतरियों-सी नजर आने वाली सैटेलाइट डिश घरों की छतों पर कतारबद्ध होने लगीं। फिल्म इशारा करती है कि वक्त अब बदल चुका है। अब किसी एक पहलवान के लिए अपने प्रतिद्वंद्वी से अपने इलाके की हिफाजत कर पाना मुमकिन नहीं रह गया है।चूंकि बड़े भाई की पहले ही मौत हो चुकी है, इसलिए सरदार का छोटा बेटा फैजल अनमने ढंग से घर-परिवार की जिम्मेदारी उठाता है। वह बेमन से ही सही, लेकिन अपने पिता द्वारा स्थापित किए गए साम्राज्य को आगे बढ़ाने का काम करता रहता है। मुझे लगता है ऐसा इसलिए है, क्योंकि उसका वास्ता युवाओं से पड़ता है। उसका एक प्रमुख गुंडा वास्तव में चौदह साल का 'ब्लेड रनर' है, जिसका नाम है परपेंडीकुलर। वह दोधारी ब्लेड का उपयोग तलवार की तरह करता है। उसके असिस्टेंट का नाम टैंजेंट है। उसका एक और भरोसेमंद गुंडा उसका विक्षिप्त सौतेला भाई डेफिनेट है। उसका यह गुट मिलकर खूब धूम मचाता है। फैजल का नाम ही आतंक का पर्याय है। उसके परिवार का अब तक का इतिहास बदले का इतिहास रहा है। खून और खूनखराबे का यह दुष्चक्र अंतहीन है। फैजल आखिरकार रामाधीर के साथ समझौता करने का फैसला करता है, लेकिन हम समझ जाते हैं कि यह गठजोड़ पक्का नहीं हो सकता। फैजल खान की भूमिका नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने निभाई है। भांग बूटी के सुरूर में चूर रहने वाला फैजल दिलेर है और वह कोई भी लड़ाई अकेले ही लड़ने में यकीन रखता है। पिछले कुछ सालों में बहुत कम अभिनेता इस तरह अपने चरित्रों की त्वचा में दाखिल होने में कामयाब हो पाए हैं। नवाजुद्दीन का आमफहम हुलिया और अपनी देहभाषा पर अचूक नियंत्रण्ा उन्हें अभिनय के एक ऐसे स्तर पर ले जाता है, जिसकी तुलना में इस साल आई दूसरी फिल्मों के नायक किसी और के या खुद अपने ही अनुसरणकर्ता नजर आने लगते हैं। फिल्म की कास्टिंग (मुकेश छाबड़ा) भी हम पर इतना ही गहरा असर छोड़ती है। जीशान कादरी की इस अद्भुत कहानी का हर किरदार खूब फबा है। पिछले कुछ सालों में अनुराग कश्यप ने एक निर्माता और निर्देशक के रूप में जिस प्रकार की प्रतिभाओं को अपनी ओर आकर्षित किया है और उन्हें प्रेरित किया है, उससे वे अपने आपमें भारत के टॉप फिल्म स्कूल बन चुके हैं। पिछले दशक में यही भूमिका रामगोपाल वर्मा निभाया करते थे। यह फिल्म निश्चित ही अनुराग कश्यप का अब तक सर्वश्रेष्ठ काम है।वासेपुर, जो कभी गांव हुआ करता था और अब धनबाद का एक पड़ोसी कस्बा है, वर्ष 2000 में बिहार और झारखंड के विभाजन के बाद झारखंड का हिस्सा बन गया था। इस इलाके में अराजकता का साम्राज्य आज भी बरकरार है। राजसत्ता की मौजूदगी का लगभग कोई वजूद नहीं है। फैजल का अब ब्याह हो चुका है। वह अपनी बीवी को प्यार करता है। वह भी उसे चाहती है। दोनों इस गीत को बेइंतहा पसंद करते हैं : 'फ्रस्टियाओ नहीं मोरा, नर्वसाओ नहीं मोरा'। यह गीत अपनी संकर शब्दावली भर से धनबाद के समूचे इलाके के सारतत्व को निचोड़ लेता है। निर्देशक की रुचि ब्योरों में है, फिर चाहे वह हत्या की चरण-दर-चरण प्रक्रिया हो या बूथ कैप्चरिंग हो। हम लगभग उस इलाके की गंध को सूंघ सकते हैं। जो लोग इन नजारों से वाकिफ हैं, वे पाएंगे कि वे रंगीन चश्मे से अपनी इस दुनिया को फिर से देख रहे हैं, और जो लोग इन नजारों से नावाकिफ हैं, वे भी अपना दिल बहलता पाएंगे।520 मिनटों का यह मिनी-सीरिज़ महाकाव्य फिल्मकार को अपने कथानक में बारीकी के साथ पैठने का मौका देता है। उसने सनसनीखेज हत्याओं और रंग-बिरंगी संवाद अदायगी की कला में निश्चित ही महारत हासिल कर ली है। यदि हम इस फिल्म के पहले भाग की तुलना में उसके दूसरे भाग को प्राथमिकता देते हैं तो उसका कारण यही है कि इसी फिल्म में पहले भाग की कहानी अपने मुकम्मल मुकाम तक पहुंचती है। आपको इस फिल्म की महत्वाकांक्षा के व्यापक पैमाने का अहसास हो जाता है। अब हम इस महाकाव्य के समूचे ओर-छोर को देख सकते हैं। हम थियेटर से एक किस्म की जीवंतता लिए बाहर निकलते हैं, अलबत्ता हमें लगता है कि हमारा सिर भारी हो रहा है। यह फिल्म किसी अंधड़ की तरह हमसे टकराती है। यकीनन, यही इस फिल्म की मंशा भी थी।
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